Benefits of Shree Sukta, श्री सूक्त का क्या लाभ है, श्री सूक्त कैसे जपे,
ऋग्वेद में वर्णित श्री सूक्त माँ लक्ष्मी की अराधना के लिए सर्वश्रष्ठ मन गया है। इसका उल्लेख कई ग्रंथों में मिलता है। श्री सूक्त का क्या लाभ है, श्री सूक्त कैसे जपे, तथा इसकी पूजा कैसे की जाए व इसका अर्थ क्या है इस विषय में जानकारी दे रहे हैं।
हिंदू धर्म में 3 देवियों का बड़ा महत्व है यही तीन देवियां त्रिशक्ति है जो पूरे संसार को ज्ञान धन तथा शक्ति प्रदान करती हैं। महालक्ष्मी जिस घर में विराजमान रहती है उस घर में दरिद्रता कभी नहीं आती। निर्धन लोग इस संसार में जीने के लिए धन की आवश्यकता सदैव पड़ती है। धन की अधिष्ठात्री देवी मां लक्ष्मी कही गई है जो सौभाग्य को पास लाती है और दुर्भाग्य को दूर करती है विभिन्न प्रकार से लोग उनकी उपासना करते हैं। यह श्री सूक्त माता लक्ष्मी जी को अतिप्रिय है। जो नियमित रूप से श्रीसूक्त का पाठ करता है माता लक्ष्मी उस पर सदैन प्रसन्न रहती है और गरीबी को दूर करके धन, सम्पत्ति और वैभव प्रदान करती है।
ज्योतिष के अनुसार शुक्र ग्रह को धन संपदा तथा वैभव का ग्रह कहा गया है। यदि आपका शुक्र ग्रह उत्तम है तो आपको सभी तरह की भौतिक वस्तुएं प्राप्त हो सकती है और यदि शुक्र बहुत अच्छा है तो आपको आध्यात्मिक सुख भी प्रदान कराता है। रामकृष्ण परमहंस की कुंडली में शुक्र उच्च का था। जिससे उन्हें आध्यत्मिक सुख की प्राप्ति हुई। मां लक्ष्मी का शुक्र पर विशेष प्रभाव होता है मां लक्ष्मी की उपासना करने से स्वतः ही शुक्र ग्रह सुधर जाता है।
यदि आपका शुक्र छठे, आठवें अथवा बारहवें भाव में है या फिर राहु केतु से पीड़ित है। किसी अन्य कारण से शुक्र का फल नहीं मिल रहा हो तो ऐसी स्थिति में आपको श्री सूक्त का पाठ प्रत्येक शुक्रवार को करना चाहिए।
श्री सूक्त ‘पञ्च सूक्तों’ में से एक है, जो इस प्रकार है पुरुष सूक्तम, विष्णु सूक्तम, श्री सूक्तम, भू सूक्तम, नील सूक्तम। ये सभी सूक्त विष्णु उपासना के हैं परन्तु इसमें श्री सूक्त थोड़ा सा अलग है।
इस सूक्त के लॉजिक को आप ऐसे भी समझ सकते है।
कई बार जब आपको कोई चीज चाहिए होती है। आपको लगता है की पिता से मांगेंगे तो वह मना कर देंगे। इसलिए आप माँ के पास पहुंच जाते हैं और इक्षित वास्तु मिल जाती है।
भगवान विष्णु जगत के पालनहार है वह हमारे पालक पिता है। ब्रह्मा ने सृष्टि का आरंभ किया अंत महादेव करेंगे परन्तु जब तक सृष्टि है तब तक यह ठीक से चले ये विष्णु जी का काम है। इस सूक्त में ऋषि खुद को कर्दम ऋषि की संतान बताता है। और अग्नि से खुद के लिए श्री यानि लक्ष्मी को प्रसन्न करने को कहता है।
वेदों में अग्नि को देवता और मनुष्यों के बीच का गेटवे माना गया है। देवता अग्नि से हमारी दुनिया में आ सकते है परन्तु मनुष्य अग्नि पार कर देवताओं के पास नहीं जा सकते। इसलिए मनुष्यों को जलने की प्रथा है की वह देवताओं के पास पहुंच जाये। जब हम मंदिर में जाते हैं तो द्वार पूजा पहले करते है फिर अंदर प्रवेश करते है उसी तरह देवो की पूजा के लिए अग्नि की पूजा पहले की जाती थी। गणेश से भी पहले पूजे जाने वाले देवता अग्नि है क्युकी दीप जलाकर ही सभी देवताओं की पूजा की जाती है।
वेदों में बहुत सारे खिल हैं जिन्हें खिलतानी या परिशिष्ट कहते हैं। जिनमें देवताओं की स्तुति की गई है, ऋषियों के बारे में बताया गया है, थोड़ा बहुत इतिहास तथा कुछ प्राकृतिक छंदों का वर्णन है। श्री सूक्त के बहुत सारे प्रकार विभिन्न ग्रंथों में आपको मिलते हैं।
श्री सूक्त में 15 मंत्र हैं 16 श्लोक में में फलश्रुति बताई गई है। ऋग्वेद में अश्वलाइन शाखा संहिता में इसके बारे में ज्यादा बताया गया है। किसके 5 मंडल में सूक्त नंबर 88 में 16 मंत्र हैं और सूक्त नंबर 19 में 10 मंत्र है जो इसका उल्लेख करते हैं कि इसका क्या लाभ है।
श्री सूक्त जातिभेद अर्थात अग्नि की पूजा है इसमें अग्नि से कहा जाता है कि वह हमारे लिए श्री यानी लक्ष्मी को लेकर आए और वह बुरी शक्तियां जैसे अलक्ष्मी को समाप्त करें इसका मुख्य उद्देश्य राजा जैसा यश यश तथा धन प्राप्त करना है।
अगर आप इसका पथ नहीं कर सकते तो उसे घर में सुबह शाम सुन सकते हैं। इसको सुनने से भी बहत लाभ होता है।
श्री सूक्त पाठ सुनने के लाभ
इसे घर में प्रतिदिन सुनना चाहिए यह आर्थिंक तंगी से छुटकारे के लिए यह अचूक प्रभावकारी माना जाता है। श्री सूक्त पाठ सुनने से आरोग्य का वरदान मिलता है।
श्री सूक्त पाठ सुनने से दूर्भाग्य सौभाग्य में बदल जाता है, घर में समृद्धि आती है। परिवार कभी गरीबी से नहीं गुजरता। व्यापार में तरक्की के अवसर खुल जाते हैं।
प्रत्येक महीने की अमावस्या और पूर्णिमा को 11 बार इसे सुनने से आपकी मनोकामना पूर्ण होती है।
ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं, सुवर्णरजतस्त्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आ वह।।१।।
अर्थ- हे जातवेदा (सर्वज्ञ) अग्निदेव! सुवर्ण के समान पीले रंगवाली, किंचित हरितवर्ण वाली, सोने और चांदी के हार पहनने वाली, चांदी के समान धवल पुष्पों की माला धारण करने वाली, चन्द्र के समान प्रसन्नकान्ति, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी को मेरे लिए आवाहन करो (बुलाइए)।
ॐ तां म आ वह जातवेदो, लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम्।।२।।
अर्थ- हे अग्निदेव! आप उन जगत प्रसिद्ध लक्ष्मीजी को, जिनका कभी विनाश नहीं होता तथा जिनके आगमन से मैं सोना, गौ, घोड़े तथा पुत्रादि को प्राप्त करुंगा, मेरे लिए आवाहन करो।
अश्वपूर्वां रथमध्यां, हस्तिनादप्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुप ह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।।3।।
अर्थ- जिन देवी के आगे घोड़े तथा उनके पीछे रथ रहते हैं अथवा जिनके सम्मुख घोड़े रथ में जुते हुए हैं, ऐसे रथ में बैठी हुई, हाथियों के निनाद से प्रमुदित होने वाली, देदीप्यमान एवं समस्तजनों को आश्रय देने वाली लक्ष्मीजी को मैं अपने सम्मुख बुलाता हूँ। दीप्यमान व सबकी आश्रयदाता वह लक्ष्मी मेरे घर में सर्वदा निवास करें।
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्।
पद्मेस्थितां पद्मवर्णां तामिहोप ह्वये श्रियम्।।४।।
अर्थ- जो साक्षात् ब्रह्मरूपा, मन्द-मन्द मुसकराने वाली, जो चारों ओर सुवर्ण से ओत-प्रोत हैं, दया से आर्द्र हृदय वाली या समुद्र से प्रादुर्भूत (प्रकट) होने के कारण आर्द्र शरीर होती हुई भी तेजोमयी हैं, स्वयं पूर्णकामा होने के कारण भक्तों के नाना प्रकार के मनोरथों को पूर्ण करने वाली, भक्तानुग्रहकारिणी, कमल के आसन पर विराजमान तथा पद्मवर्णा हैं, उन लक्ष्मीदेवी का मैं यहां आवाहन करता हूँ।
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्।
तां पद्मिनीमीं शरणं प्र पद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे।।५।।
अर्थ- मैं चन्द्र के समान शुभ्र कान्तिवाली, सुन्दर, द्युतिशालिनी, यश से दीप्तिमती, स्वर्गलोक में इन्द्रादि देवगणों के द्वारा पूजित, उदारशीला, पद्महस्ता, सभी की रक्षा करने वाली एवं आश्रयदात्री लक्ष्मीदेवी की शरण ग्रहण करता हूँ। मेरा दारिद्रय दूर हो जाय। मैं आपको शरण्य के रूप में वरण करता हूँ अर्थात् आपका आश्रय लेता हूँ।
आदित्यवर्णे तपसोऽधि जातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु या अन्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।६।।
अर्थ- हे सूर्य के समान कान्ति वाली! तुम्हारे ही तप से वृक्षों में श्रेष्ठ मंगलमय बिना फूल के फल देने वाला बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुआ। उस बिल्व वृक्ष के फल हमारे बाहरी और भीतरी (मन व संसार के) दारिद्रय को दूर करें।
उपैतु मां दैवसखः, कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिमृद्धिं ददातु मे।।७।।
अर्थ- हे लक्ष्मी! देवसखा (महादेव के सखा) कुबेर और उनके मित्र मणिभद्र अर्थात् चिन्तामणि तथा दक्ष प्रजापति की कन्या कीर्ति मुझे प्राप्त हों। अर्थात् मुझे धन और यश की प्राप्ति हो। मैं इस राष्ट्र में–देश में उत्पन्न हुआ हूँ, मुझे कीर्ति और ऋद्धि प्रदान करें।\n\n
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वां निर्णुद मे गृहात्।।८।।
अर्थ- लक्ष्मी की ज्येष्ठ बहिन अलक्ष्मी (दरिद्रता की अधिष्ठात्री देवी) का, जो क्षुधा और पिपासा से मलिन–क्षीणकाय रहती हैं, मैं नाश चाहता हूँ। देवि! मेरे घर से सब प्रकार के दारिद्रय और अमंगल को दूर करो।
गन्धद्वारां दुराधर्षां, नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्वभूतानां, तामिहोप ह्वये श्रियम्।।९।।
अर्थ- सुगन्धित पुष्प के समर्पण करने से प्राप्त करने योग्य, किसी से भी दबने योग्य नहीं, धन-धान्य से सर्वदा पूर्ण, गौ-अश्वादि पशुओं की समृद्धि देने वाली, समस्त प्राणियों की स्वामिनी तथा संसार प्रसिद्ध लक्ष्मीदेवी का मैं यहां–अपने घर में आवाहन करता हूँ।
मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः।।१०।।
अर्थ- हे लक्ष्मी देवी! आपके प्रभाव से मन की कामनाएं और संकल्प की सिद्धि एवं वाणी की सत्यता मुझे प्राप्त हों; मैं गौ आदि पशुओं के दूध, दही, यव आदि एवं विभिन्न अन्नों के रूप (भक्ष्य, भोज्य, चोष्य, लेह्य, चतुर्विध भोज्य पदार्थों) को प्राप्त करुँ। सम्पत्ति और यश मुझमें आश्रय लें अर्थात् मैं लक्ष्मीवान एवं कीर्तिमान बनूँ।
कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्।।११।।
अर्थ- लक्ष्मी के पुत्र कर्दम की हम संतान हैं। कर्दम ऋषि! आप हमारे यहां उत्पन्न हों (अर्थात् कर्दम ऋषि की कृपा होने पर लक्ष्मी को मेरे यहां रहना ही होगा) मेरे घर में लक्ष्मी निवास करें। पद्मों की माला धारण करने वाली सम्पूर्ण संसार की माता लक्ष्मीदेवी को हमारे कुल में स्थापित कराओ।
आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले।।१२।।
अर्थ- समुद्र-मन्थन द्वारा चौदह रत्नों के साथ लक्ष्मी का भी आविर्भाव हुआ है। इसी अभिप्राय में कहा गया है कि वरुण देवता स्निग्ध पदार्थों की सृष्टि करें। पदार्थों में सुन्दरता ही लक्ष्मी है। लक्ष्मी के आनन्द, कर्दम, चिक्लीत और श्रीत–ये चार पुत्र हैं। इनमें चिक्लीत से प्रार्थना की गयी है। हे लक्ष्मीपुत्र चिक्लीत! आप भी मेरे घर में वास करें और दिव्यगुणयुक्ता तथा सर्वाश्रयभूता अपनी माता लक्ष्मी को भी मेरे कुल में निवास करायें।
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिंगलां पद्ममालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आवह।।१३।।
अर्थ- हे अग्निदेव! हाथियों के शुण्डाग्र से अभिषिक्त अतएव आर्द्र शरीर वाली, पुष्टि को देने वाली अर्थात् पुष्टिरूपा, पीतवर्णा, पद्मों (कमल) की माला धारण करने वाली, चन्द्रमा के समान शुभ्र कान्ति से युक्त, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी का मेरे घर में आवाहन करें।
आर्द्रां य करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह।।१४।।
अर्थ- हे अग्निदेव! जो दुष्टों का निग्रह करने वाली होने पर भी कोमल स्वभाव की हैं, जो मंगलदायिनी, अवलम्बन प्रदान करने वाली यष्टिरूपा हैं (जिस प्रकार लकड़ी के बिना असमर्थ पुरुष चल नहीं सकता, उसी प्रकार लक्ष्मी के बिना संसार का कोई भी कार्य ठीक प्रकार नहीं हो पाता), सुन्दर वर्णवाली, सुवर्णमालाधारिणी, सूर्यस्वरूपा तथा हिरण्यमयी हैं (जिस प्रकार सूर्य प्रकाश और वृष्टि द्वारा जगत का पालन-पोषण करता है, उसी प्रकार लक्ष्मी ज्ञान और धन के द्वारा संसार का पालन-पोषण करती है), उन प्रकाशस्वरूपा लक्ष्मी का मेरे लिए आवाहन करें।
तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम्।।१५।।
अर्थ- हे अग्निदेव! कभी नष्ट न होने वाली उन स्थिर लक्ष्मी का मेरे लिए आवाहन करें जो मुझे छोड़कर अन्यत्र नहीं जाने वाली हों, जिनके आगमन से बहुत-सा धन, उत्तम ऐश्वर्य, गौएं, दासियां, अश्व और पुत्रादि को हम प्राप्त करें।
य: शुचि: प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।
सूक्तं पंचदशर्चं च श्रीकाम: सततं जपेत्।।१६।।
अर्थ- जिसे लक्ष्मी की कामना हो, वह प्रतिदिन पवित्र और संयमशील होकर अग्नि में घी की आहुतियां दे तथा इन पंद्रह ऋचाओं वाले–“श्री-सूक्त” का निरन्तर पाठ करे।
॥ इति श्री सूक्तम् संपूर्णम् |