दोस्तों संस्कृत का एक श्लोक है
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुरेव परंब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
संस्कृत की यह पंक्तियां गुरु की महिमा का बखान करती हैं। गुरु जीवन को सुधारता है इसलिए गुरु हमारे लिए देवताओं से गुरु हैं। गुरु साक्षात ब्रह्मा है, गुरु ही साक्षात विष्णु हैं, गुरु ही साक्षात महेश्वर यानी शिव है और सभी गुरुओं को मैं नमन करता हूं।
गुरु कब बनाना चाहिए, गुरु कैसे बनाना चाहिए? गुरु बनाना क्यों जरूरी है? गुरु के गुण क्या क्या होने चाहिए? गुरु का मतलब क्या होता है?इन सभी प्रश्नों का उत्तर आज देने जा रहे हैं। एक कहावत है, पानी पीजिए छान के, गुरु चुनिए जान के।
गुरु का मतलब क्या होता है?
दोस्तों गुरु का मतलब हिंदी भाषा में होता है जो वजनदार है। किसी को सही मार्ग दिखाने वाला व्यक्ति मार्गदर्शक होता है लेकिन जो उसके जीवन को बदल दे वह गुरु होता है। गुरु एक पूज्य व्यक्ति होता है जो अपने व्यक्तित्व से अपने शिष्य के जीवन को मूल्यवान बना देता है।जो भी व्यक्ति ऐसा पाठ पढ़ाए जो आपके जीवन को अंधकार से उजाले की ओर ले जाएं ऐसे व्यक्ति को ही गुरु मानना चाहिए। जरूरी नहीं है कि आपका गुरु जीवित कोई मनुष्य ही हो निर्जीव वस्तु भी हो सकती है जैसे आर एस एस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने गुरु को ध्वज अपने ध्वज को भगवा ध्वज को गुरु मानता है जैसे सभी सिख लोग गुरु ग्रंथ साहब को ही गुरु मानते हैं जबकि वह तो एक पुस्तक है।
गुरु बनाना क्यों जरूरी है?
दोस्तों गुरु ढूंढने के लिए हम किसी को भी अपने जीवन में गुरु बना सकते हैं कोई बड़ा काम नहीं है दत्तात्रेय जी ने 24 गुरु बनाए थे जिन्होंने उन्हें जीवन का पाठ पढ़ाया था। जीवन में कुछ भी सीखने के लिए हमें गुरु की आवश्यकता होती है। चाहे वह पुस्तक ही क्यों ना हो अगर वह हमें ज्ञान दे रही है तो वह हमारी गुरु है। जब भी गुरु की बात आती है तो लोग आध्यात्मिक ज्ञान के बारे में ही सोचते हैं। परंतु भौतिक ज्ञान भी देने वाला गुरु होता है सब जानते हैं कि मां होती है जो हमें वह चीजें सिखाती हैं जो हमारे जीवन के सर्वाइवल के लिए जरूरी है। हमें अपने जीवन को बदलने के लिए यह सही रास्ते पर चलने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है जो हमारा मार्गदर्शन करें।
गुरु हमारी जिंदगी को कैसे बदल देता है इसको एक उदाहरण से समझते हैं। विवेकानंद जी के गुरु रामकृष्ण परमहंस मूर्तिपूजक थे उनसे स्वयं काली मां की मूर्ति बात किया करती थी जबकि विवेकानंद जी ज्ञानमार्गी थे। वह मूर्ति पूजा पर ज्यादा विश्वास नहीं किया करते थे। परंतु फिर भी विवेकानंद जी का जीवन पूरी तरह बदल दिया गया रामकृष्ण परमहंस के द्वारा। ऐसे ही स्वामी दयानंद सरस्वती जो घोर विरोधी थे मूर्ति पूजन के उनके गुरु विरजानंद जी अंधे थे और भक्ति मार्गी थे परंतु पूरा जीवन उस भक्ति मार्ग में बदल दिया। नोट करने वाली बात यह है कि गुरु और शिष्य दोनों की विचारधाराएं बिल्कुल अलग होने के बावजूद भी गुरु के जीवन में आने पर शिष्य सवर गया।