Raas Leela kya hoti hai, रास क्या है,
तुम करो तो रासलीला हम करें तो करेक्टर ढीला
हमारी उर्दू फिल्म इंडस्ट्री बोले तो बॉलीवुड में ये डाईलोग बहुत बार बोला गया है। यही वाक्य अधिकांश इश्कमिजाज लोगों के मुख से अक्सर सुनने को मिल जाता है।
रास लीला क्या है? और क्यों भगवन श्रीकृष्ण ने इसे किया किस दिन किया और हमें उनसे सीख लेकर क्या करना चाहिये?
क्या है रास
सामान्य शब्दों में रास का अर्थ किसी रस का आनंद लेना माना जाता है। रास शब्द हिंदी या संस्कृत का नहीं है यह उर्दू यानी अरबी का शब्द है। आप जब इंटरनेट पर सर्च करेंगे तो ज्यादातर यही रिजल्ट मिलेंगे। जैसे कोई चीज निचे गिर गई और फस गई तो कहते है धस गई है। हाथ में लकड़ी का छोटा टुकड़ा फास जाता है तो लोग कहते हैं धास लग गई। जिसमे धस गया वो धास है।
रस में धस जाना रास है यानि रास (आनंद) में सराबोर होना रास है।
रास कैसे शरू हुआ उसके पीछे की घटना क्या है।
श्रीमद्भागवत में रास पंचध्यायी के दसवें स्कंध में 29 से 33 अध्याय में रास लीला के सही अर्थ और उद्देश्य को इस लेख में समझाया गया है। आप ऐसा समझे कि श्रीमद्भागवत में “रास पंचध्यायी” का उतना ही महत्व है जितना हमारे शरीर में आत्मा का।
घटना इस तरह है एक बार कामदेव को घमंड हो गया
कामदेव ने श्री कृष्ण से कहा की उसे भगवान शिव ने भले ही भस्म कर दिया हो पर उसका बाण लगने के बाद भगवान शिव भी पार्वती की ओर आकर्षित हो गए थे। दरअसल सती की मृत्यु के पश्चात जब भगवान शिव संसार की मोह-माया के बंधन से मुक्त होकर ध्यान में लीन हो गए थे तब देवताओं के कहने पर कामदेव ने अपने काम बाण से भगवान शिव का ध्यान भंग कर दिया।
ध्यान भंग होने से क्रोधित भगवान शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था परंतु कामदेव की पत्नी रति की विनती सुनकर भोलेनाथ ने कामदेव को पुन: अस्तित्व प्रदान किया। इस घटना के बाद कामदेव को अपने ऊपर गर्व हो गया था कि वे किसी को भी काम के प्रति आसक्त कर सकते हैं।
इसी घमंड के चलते उन्होंने श्रीकृष्ण, जी को भी चुनौती दे दी की वह किसी को भी वासना के बंधन में बांध सकते हैं। कोई भी ऐसा नहीं है जो काम जैसी किसी भी भावना से मुक्त हो। श्रीकृष्ण ने भी उनकी चुनौती स्वीकार कर ली।
परंतु इसके लिए भी कामदेव की एक शर्त थी, कामदेव ने कहा कि अश्विन माह की पूर्णिमा की रात वृंदावन के खूबसूरत जंगलों में आकर उन्हें स्वर्ग की अप्सराओं से भी सुंदर गोपियों के साथ आना होगा। जहां कामदेव के अनुकूल वातावरण भी हो।
कृष्ण ने कामदेव की यह बात ली और शरद पूर्णिमा की रात वृंदावन के रमणीय जंगल में पहुंचकर बांसुरी बजाने लगे।
उनकी बांसुरी की सुरीली धुन सुनकर सभी गोपियां अपनी सुध-बुध होकर कृष्ण के पास पहुंच गईं। उन सभी गोपियों के मन में कृष्ण के नजदीक जाने, उनसे प्रेम करने का भाव तो जागा लेकिन यह पूरी तरह वासना रहित था।
यहां गोपियों के मन में कोई भय नहीं था। क्यों? क्योंकि वे जानती थीं कि वे कोई गलत काम नहीं कर रही हैं। वे वो लक्ष्य प्राप्त करने जा रही है जिसके लिए जीव को जन्म मिलता है। श्रीकृष्ण के साथ रास खेलना यानी परमात्मा को प्राप्त करना है।
इसलिए गोपियां डरी नहीं। उन्होंने अपना सबकुछ छोड़ दिया। घर, परिवार,रिश्ते-नाते,जमीन-जायदाद, सुख-शांति और वृंदावन के उस जंगल में पहुंच गईं,जहां कृष्ण थे। श्रीकृष्ण ने सभी गोपियों का स्वागत किया।
भगवान ने एक बातचीत के जरिए सबके मनोभावों को परखा। उनके निष्काम भावों से भगवान प्रसन्न हुए और उन्होंने गोपियों से कहा “आओ रास खेलें।”
श्रीकृष्ण ने अपने हजारों रूप धरकर वहां मौजूद सभी गोपियों के साथ महारास रचाया लेकिन एक क्षण के लिए भी उनके मन में वासना का प्रवेश नहीं हुआ।
काम के देवता, कामदेवता ने अपनी पूरी ताकत लगा दी लेकिन वे श्रीकृष्ण के भीतर वासना या काम जैसी किसी भी भावना को उत्पन्न करने में विफल रहे।
चारों ओर अप्सराओं से भी खूबसूरत स्त्रियों से घिर जाने के बाद,स्वयं को वासना से बचाकर रखने का कार्य तो भगवान कृष्ण ही कर सकते हैं।
इस तरह भगवान कृष्ण ने अपनी सभी गोपियों के साथ रास भी रचाया, उन्हें अपने समीप भी रखा और कामदेव से लगी शर्त भी जीत गए।