Why kanwar Yatra, क्यों होती है कांवड़ यात्रा, इतिहास, विश्लेषण
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हिन्दू धर्म में प्रचलित मान्यताओं के अनुसार श्रावण (सावन) का महीना भगवान शिव का महीना है। सावन क महीने में हजारों की तादाद में शिव भक्त कांवड़ यात्रा करते नजर आते हैं। वे प्रतिवर्ष पवित्र नदी से जल लेकर भगवान शिव पर चढ़ाते हैं।
आइये जानने का प्रयत्न करते हैं कि पहला कावड़िया कौन था।
इसके प्रमाण धर्म ग्रंथों में नहीं मिलता लेकिन कुछ घटनाएं हैं जिनसे इस बात का पता चलता है कि इन्ही से कांवड़ का प्रचलन हुआ होगा।
सावन मास की त्रियोदशी के दिन किसी भी शिवालय पर जल चढ़ाना लाभदायक माना जाता है। प्रदोष के दिन यानी त्रयोदशी को भगवान शिव को जल अर्पण अत्यंत शुभ फलदाई माना जाता है।
Why kanwar Yatra, क्यों होती है कांवड़ यात्रा
दोस्त उसका पहला कारण लोग बताते हैं कि जब समुद्र मंथन हुआ था। इसमें सबसे पहले हलाहल विष निकला था जिसे कालकूट भी कहा जाता है। वह भगवान शिव ने पी लिया था। जिसे उन्होंने अपने कंठ में रोक लिया था जिसके कारण उनका कंठ नीला पड़ गया था। जल चढ़ा कर उनके कंठ को ठंडा किया जाता है। इसलिए हर साल कावड़ यात्री पवित्र नदी से जल लाकर भगवान शिव को त्रयोदशी के दिन जल चढ़ाते है।
इस बात में बहुत हद तक सच्चाई नहीं दिखती। क्योंकि जब देवता लोग से समुद्र से निकले अमृत को लेकर जिस रास्ते से गए थे उस मार्ग पर आज भी कुंभ का मेला लगाया जाता है। भगवान शिव के विष पीने जैसी बड़ी घटना पर कांवड़ निकलने का उल्लेख जरूर होता।
कुछ लोगों का मानना है कि श्रवण कुमार पहले कावड़िया थे। उन्होंने अपने माता पिता को कंधे पर बैठाकर तीर्थ यात्रा कराई। लेकिन यहां पर भगवान शिव का कोई वर्णन नहीं है। इसलिए हम श्रवण कुमार की यात्रा को भगवान शिव और कावड़ियों से नहीं जोड़ सकते।
एक और मान्यता के अनुसार परशुराम जी ने भगवान शिव की उपासना के लिए गढ़मुक्तेश्वर से जल ले जाकर पुरा महादेव बागपत में चढ़ाया था। इसके पीछे किसी तरह की कथा का वर्णन नहीं मिलता। हम इसे कुछ हद तक मान सकते हैं। परशुराम जी भगवान तुल्य थे पर जननायक नहीं थे। यह तर्क ठीक से कसौटी पर खरा नहीं उतरता।
एक मत के अनुसार रावण पहला कावड़िया था। यह घटना भी समुद्र मंथन से जुड़ी हुई बताई गई है। रावण भगवान शिव के लिए जल लेकर गए थे। इस कथा को प्रामाणिक नहीं मान सकते क्योंकि समुद्र मंथन की घटना रावण के जन्म से बहुत पहले की थी।
सबसे पहले किसी नदी से जल लेकर शिवलिंग पर जल चढ़ाने की प्रथा भगवान राम द्वारा शरू की गई। उसके बाद कावड़ यात्रा उत्तर भारत में विभिन्न स्थानों पर होने लगी।
रामायण की एक कथा के अनुसार भगवान राम ने रावण का वध कर दिया था। वह इसका प्रायश्चित करना चाहते थे। भले ही रावण अत्याचारी था। लेकिन उसके सकारात्मक पहलुओं को नकारा नहीं जा सकता था। वह विद्वान था, साथ ही पुलस्त ऋषि की परंपरा से था। उनका मानना था की उन्हें ब्रम्ह हत्या का पाप लगा है। इस बात से छुटकारा पाने के लिए राज सूर्य यज्ञ कराया तथा सुल्तानगंज से उत्तर मुखी गंगा का जल लेकर रावण द्वारा स्थापित ज्योतिर्लिंग पर जल चढ़ाने के लिए प्रस्थान किया। तब से कावड़ यात्रा का आरंभ माना जाता है।
इसे एक तरह से और समझा जा सकता है। सुल्तानगंज में ही केवल गंगा माँ उत्तर दिशा में बहती है बाकि स्थानों पर पूर्व या दक्षिण की ओर बहती हैं। इसलिए इसे उत्तर वाहिनी गंगा कहा जाता है। कहते हैं जब भगीरथ के प्रयास से माँ गंगा का स्वर्ग से पृथ्वी पर आना हुआ तो उनके वेग से विनाश हो सकता था जिसे रोकने के लिए साक्षात भगवान शिव अपनी जटायें खोलकर उनके प्रवाह-मार्ग में आकर उपस्थित हो गये।
उसके बाद गंगा का वेग कम हो गया। हमारा देश इतिहासकारों का देश नहीं है। बल्कि यह कवियों का देश है यहां पर काव्य लिखे जाते हैं। हिमालय को भगवान शिव की जटा कहा जहाँ से गंगा निकली। अब एक बड़े इंसान की कल्पना कीजिये जिसकी जटाएं हिमालय जितनी बड़ी हों। वह पद्मासन में बैठा है और उसके सर से जल धरा बह रही है। उसकी जंघाएँ और घुटना बिहार के सुल्तानगंज को छुएँगे। क्युकी भगवान शिव पद्मासन में थे इसलिए पूर्व जाती हुई गंगा उनके चरण स्पर्श करने के लिए उत्तर में मुड़ गई।
इस कारण से पूरे भारत में केवल यहाँ ही गंगा उत्तर दिशा में बहती है। कहीं और ऐसा नहीं है। यहाँ स्वायम्भुव शिव का मन्दिर स्थापित हुआ इसका नाम दिया गया अजगवीनाथ मन्दिर (यानि ऐसे भगवान जो इस जग के न हों)। जो भी लोग यहाँ सावन के महीने में काँवर के लिये गंगाजल लेने आते हैं वे इस मन्दिर में आकर भगवान शिव की पूजा अर्चना और जलाभिषेक करना कदापि नहीं भूलते। भक्तगण गंगा माँ को समीप ज्योतिर्लिंग बैजनाथ धाम ले जाते हैं। ताकि उन्हें गंगा के कोप का से सुरक्षा मिले।
कितनी तरह की होती है कांवड़ यात्रा?
भगवान शिव की साधना से जुड़ी पावन कांवड़ यात्रा में समय के साथ कई बदलाव आए हैं। जिसे शिव भक्त अपनी आस्था, समय और सामर्थ्य के अनुसार करता है। इनमें तीन तरह की कांवड़ यात्रा अभी प्रचलन में है।
- खड़ी कांवड़
शिव भक्त अपने आराध्य भगवान शंकर के लिए जल इकट्ठा करने के वास्ते कांवड़ को अपने कंधे पर लेकर पैदल यात्रा करते जाते हैं। खड़ी कांवड़ को सबसे कठिन कांवड़ यात्रा माना जाता है क्योंकि इस कांवड़ यात्रा के दौरान कांवड़ को कहीं जमीन पर नहीं रखा जाता है। यात्रा के दौरान यदि किसी कांवड़िए को भोजन या आराम करना होता है तो वह इसे किसी दूसरे कांवड़िए को थमा देता है या फिर किसी स्टैंड पर टांग देता है। खड़ी कांवड़ यात्रा में एक कांवड़िए की मदद के लिए कई दूसरे सहयोगी साथ चलते हैं।
- डाक कांवड़
डाक कांवड़ के जरिए शिव भक्त अपने आराध्य भगावन शिव के जलाभिषेक वाले दिन तक लगातार बगैर रुके चलते हैं। इस यात्रा में भोले के भक्त शिवधाम की दूरी एक निश्चित समय में शिव भजन पर गाते-झूमते हुए तय करते हैं।
- झांकी वाली कांवड़
वर्तमान समय में भगवान शिव की भव्य झांकी बनाकर कांवड़ यात्रा का प्रचलन बढ़ा है। झांकी वाली कांवड़ में कांवड़िए किसी खुले वाहन में भगवान शिव का दरबार सजाकर गाते-बजाते हुए इस पावन यात्रा को पूरी करते हैं।