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श्राद्ध का अर्थ, इसका इतिहास तथा सरल विधि what is shraadha

नमस्कार दोस्तों पायस एस्ट्रो में आपका स्वागत है हिंदू धर्म में श्राद्ध का बहुत महत्व है। यह वैदिक आचार है, जो वैदिक काल से चला आ रहा है। आज के वीडियो में आज हम बताएंगे के श्राद्ध का अर्थ क्या है? इसका इतिहास क्या है, तथा इसकी सबसे सरल विधि क्या है? उत्तर जानने के लिए वीडियो को अंत तक देखते रहिए।

हिंदू धर्म-दर्शन के अनुसार जिस प्रकार जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; उसी प्रकार जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। ऐसे कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं। आपने 7 पीढ़ियों के बारे में तो सुना होगा इनमें तीन पीढ़ी आपके पहले यानी आपके पिता, दादा और आपके परदादा हैं। तीन पीढ़ियां आप के बाद यानी आपके बच्चे आप के पोते पोती और आपके परपोते। इस तरह से कोई व्यक्ति जब अच्छे काम करता है तो कहते हैं कि उसकी 7 पीढ़ियां तर गई।

ब्रह्मपुराण के ‘श्राद्ध’ अध्याय में श्राद्ध की निम्न व्याख्या है –
देशे काले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत् ।
पित¸नुद्दिश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाहृतम् ।। – ब्रह्मपुराण

अर्थ : देश, काल तथा पात्र (उचित स्थान)के अनुसार, पितरों को उद्देशित कर ब्राह्मणों को श्रद्धा एवं विधियुक्त जो (अन्नादि) दिया जाता है, उसे श्राद्ध कहते हैं ।

श्रद्धा शब्द से श्राद्ध की उत्पत्ति हुई है। इस लोक को छोड़कर जो पूर्वज चले गए, उन्होंने जो हमें दिया वह लौट आना संभव नहीं है। शास्त्रों के अनुसार 3 ऋण होते हैं जिन्हें कोई भी मनुष्य चुका नहीं सकता। पहला ऋण देव ऋण, दूसरा ऋण पितृ और तीसरा गुरु ऋण। हम केवल उनके प्रति श्रद्धा भाव रख सकते हैं। उनके प्रति अपनी कृतज्ञता को प्रकट करने की भावना को श्राद्ध कहते हैं।

सामान्य शब्दों में कहें तो अपने पूर्वजों का सम्मान प्रकट करने की भावना व विधि को श्राद्ध कहते हैं

श्राद्ध का इतिहास
ऋग्वेद (१०.१६) में अग्नि से अनुनय है कि वह मृतकों को पितृलोक तक पहुँचाने में सहायक हो। अग्नि से ही प्रार्थना की जाती है कि वह वंशजों के दान पितृगणों तक पहुँचाकर मृतात्मा को भीषण रूप में भटकने से रक्षा करें।
ऐतरेय ब्राह्मण में अग्नि का उल्लेख उस रज्जु (डोरी ) के रूप में किया गया है जिसकी सहायता से मनुष्य स्वर्ग तक पहुँचता है।
स्मृतियों एवं पुराणों में भी आत्मासंसरण संबंधी विश्वास पाए जाते हैं।
‘श्राद्धविधि की मूल कल्पना ब्रह्मदेव के पुत्र अत्रिऋषि की है । अत्रिऋषि ने निमी नामक अपने एक पुरुष वंशज को ब्रह्मदेवद्वारा बताई गई श्राद्धविधि सुनाई । यह रूढ आचार आज भी होता है । मनु ने प्रथम श्राद्धक्रिया की, इसलिए मनु को श्राद्धदेव कहा जाता है ।

पिंडदान (पिंडपूजा)
यजुर्वेद, ब्राह्मण तथा श्रौत एवं गृह्य सूत्रों में पिंडदान का विधान है । गृह्यसूत्रों के काल में पिंडदान प्रचलित हुआ । ‘पिंडपूजा का आरंभ कब हुआ, इसके विषय में महाभारत में निम्नलिखित जानकारी (पर्व १२, अध्याय ३, श्लोक ३४५) है – श्रीविष्णु के अवतार वाराहदेव ने श्राद्ध की संपूर्ण कल्पना विश्व को दी । उन्होंने अपनी दाढ से तीन पिंड निकाले और उन्हें दक्षिण दिशा में दर्भ पर रखा । ‘इन तीन पिंडों को पिता, पितामह (दादा) एवं प्रपितामह (परदादा)का रूप समझा जाए’, ऐसा कहते हुए उन पिंडों की शास्त्रोक्त पूजा तिल से कर वाराहदेव अंतर्धान हुए । इस प्रकार वाराहदेव के बताए अनुसार पितरों की पिंडपूजा आरंभ हुई ।’

कई बार लोग यह प्रश्न पूछते हैं कि हम दो बार श्राद्ध क्यों करें? पहला श्राद्ध जब हमारे माता या पिता का स्वर्गवास हुआ था। जैसे किसी के पिता का स्वर्गवास 2 दिसंबर को हुआ। उसने अगले वर्ष 2 दिसंबर को उनका श्राद्ध किया। तथा जब पितृपक्ष आया तब भी उसने श्राद्ध किया। दोनों में अंतर क्या है

उत्तर बहुत सरल है जब उस व्यक्ति के पिताजी का स्वर्गवास हुआ था तो उस दिन वह केवल अपने पिताजी की ही बरसी मनाएगा। उसे वार्षिक श्राद्ध कहते हैं। वह यथासंभव अपनी आर्थिक व सामाजिक स्थिति के अनुसार श्राद्ध अथवा पूजा करता है। और जब पितृपक्ष आता है जिसे महालय श्राद्ध कहते हैं उस समय वह अपने सभी पूर्वजों को उसी दिन उनका श्राद्ध व पिंड दान करता है। अगर किसी परिचय की मृत्यु प्रतिपदा को हुई है तो फिर उसका श्राद्ध प्रतिपदा के दिन होना चाहिए इसी तरह से कुछ विधान बनाए गए हैं जिनका आप को जानना जरूरी है पिता का श्राद्ध अष्टमी के दिन माता का श्राद्ध नवमी के दिन किया जाता है जिस परिजन की अकाल मृत्यु हुई है यानी किसी दुर्घटना में या फिर आत्महत्या के कारण उनकी मृत्यु हो गई है तो ऐसे व्यक्ति का श्राद्ध चतुर्दशी को किया जाता है। साधु और सन्यासियों का श्राद्ध द्वादशी को किया जाता है। जिन पितरों के मरने की तिथि याद नहीं है उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन कर दिया जाता है इस दिन को सर्वपितृ श्राद्ध कहा जाता है।

एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्। यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।

अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है।

भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है, उसी तिथी को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है।

लोगों की कुंडली में पित्र दोष पाया जाता है ऐसी स्थिति में कहा जाता है कि पितृपक्ष में अपने पितरों की पूजा करने से पित्र दोष का प्रभाव कम हो जाता है तो समाप्त हो जाता है।

या विधि वार्षिक श्राद्ध की है पितृ पूजा की विधि बताने से पहले मैं आग्रह करूँगा
किसी योग्य ब्राह्मण को बुला कर श्राद्ध करा लीजिए। परंतु यदि आप ऐसी स्थिति है जिसमें आप किसी ब्राह्मण को निमंत्रण नहीं दे सकते। जैसे लॉक डाउन में। तब आपको इस तरह से श्रद्धा पूर्वक श्राद्ध कर सकते हैं।

वार्षिक और श्राद्ध पक्ष दोनों की पूजा लगभग एक जैसी होती है परंतु थोड़ा सा अंतर है पहले हम यहां पर वार्षिक यानी जिस दिन आप के माता या पिता का स्वर्गवास हुआ था उस दिन की पद्धति जान लें।

सबसे पहले सुबह उठकर स्नान कर ले।
जहां पर भी आपको पूजा करनी है उस स्थान को गंगाजल से धोकर पवित्र कर ले।
चाहे तो वहां रंगोली बना सकते हैं।
महिलाये पितरों के लिए भोजन बनाएं।
ब्राह्मण या फिर अपने दामाद या अपने भतीजा या भांजा यह भी ब्राह्मण तुल्य माने गए हैं इन्हें भोजन के लिए आमंत्रित करें।
अब यज्ञ वेदी बनाये नहीं हो तो ४ ईंटों से बनालें।
थोड़ी लकड़ियां हवन करें १०८ बार गायत्री मंत्र का जाप करे। उसके बाद जो खाद्य सामग्री बनायीं है उसका थोड़ा सा भाग अग्नि में डाले और अपने मन में कहें अग्नि देवता यह भाग मेरे पितरों तक पहुचायें। दूध घी और खीर दही आदि उस अग्नि को समर्पित कर दीजिए। भोजन को चार भागों में बांट दीजिए पहला भाग गाय के लिए दूसरा भाग कुत्ते के लिए तीसरा भाग कौवा के लिए और चौथा भाग जो आपके यहां अतिथि आया है उसके लिए। ब्राह्मण या आप का भांजा, आपका भतीजा या फिर आप का दामाद किसी को भी भोजन कराने के बाद दक्षिणा आदि जो आपको आपके मन में श्रद्धा उनको शुल्क देखें विदा कर सकते हैं। यदि ब्राह्मण नहीं आया है तो पास के मंदिर में जाकर उसका भाग दक्षिणा और भोजन उसे देना है

अब आपको पित्र पक्ष में करने वाली विधि के बारे में बताते हैं

सबसे पहले सुबह उठकर स्नान कर ले।
जहां पर भी आपको पूजा करनी है उस स्थान को गंगाजल से धोकर पवित्र कर ले।
चाहे तो वहां रंगोली बना सकते हैं।
महिलाये पितरों के लिए भोजन बनाएं।
ब्राह्मण या फिर अपने दामाद या अपने भतीजा या भांजा यह भी ब्राह्मण तुल्य माने गए हैं इन्हें भोजन के लिए आमंत्रित करें।

जैसा कि आपको वीडियो में दिखाया जा रहा है सबसे पहले एक परात में या किसी बड़ी थाली में पानी भरकर रख लें। उसके बाद एक लोटा जल के अंदर थोड़ा दूध मिलाएं। थोड़ी से काले तिल उसके अंदर डालें। जौ डाले , थोड़े से चावल, उसके बाद थोड़ा सा चंदन डाल दे। इस तरह से यह जो आप देख रहे हैं हाथ में घास रखे इसे दूर्वा बोलते हैं। इसे आप अपने हाथ में वैसे ही रखें, जिस तरह से रखा हुआ है। आप दक्षिण दिशा की तरफ मुंह करके बैठे हो। अब आपको क्या करना है कि इसको हथेली बंद कर लेनी है और हथेली इस तरह से बंद कीजिएगा जिस तरह से यहां आपको दिखाई दे रहा है। अब हाथ में पानी डालना है और तीन बार उस पानी को गिराना है। अपने ब्रह्मा विष्णु महेश जी का नाम लेकर पानी बर्तन में गिरा देना हैं। उसके बाद आपको चिरंजीवी 7 लोगों का नाम लेना है 1. अश्वत्थामा : · 2. बलि : · 3. परशुराम : · 4. विभिषण : · 5. महर्षि व्यास : · 6. हनुमान : · 7. कृपाचार्य। इसी तरह उन्हें भी अर्ध्य देना है।
इसी तरह जल लेकर अपने पितरों को भी उनका नाम लेकर जल देना है। जिनका नाम याद नहीं है। उनका धयान करना है और अर्द्य देना है।
इसका कोई विशेष मंत्र नहीं है। इसलिए आपको परेशां होने की आवश्यकता नहीं हैं। बाद में क्रिया पूरी होने के बाद हाथ जोड़ अपने पितरों को प्रणाम करे उनसे प्राथना करे और खड़े हो जाये।
इस पानी को किसी पेड़ की जड़ में डाल दीजिए जहां किसी का पैर ना पड़े।

भोजन को चार भागों में बांट दीजिए पहला भाग गाय के लिए दूसरा भाग कुत्ते के लिए तीसरा भाग कौवा के लिए और चौथा भाग जो आपके यहां अतिथि आया है उसके लिए। ब्राह्मण या आप का भांजा, आपका भतीजा या फिर आप का दामाद किसी को भी भोजन कराने के बाद दक्षिणा आदि जो आपको आपके मन में श्रद्धा उनको शुल्क देखें विदा कर सकते हैं। यदि ब्राह्मण नहीं आया है तो पास के मंदिर में जाकर उसका भाग दक्षिणा और भोजन उसे देना है

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